NKKS

OKAK

OKAK vs ISHWAQU

okak

इतिहास इस सम्बन्ध में पर्याप्त रूप से मुखर है कि शाक्य कोली(कोरी) तथा मोरिय (मौर्य) एक ही रक्त से सम्बन्धित विशुद्ध सूर्यवंशी परम्परा के हैं। इनमें रक्त-सम्बन्धी कोई अन्तर नहीं है। अतः प्रथम शासक महासम्मत से लेकर सूर्यवंशी महाराजा OKAK तक की और महाराजा OKAK से लेकर कपिलवस्तु के सूर्यवंशी शाक्य राजा शुद्धोदन एवं देवदह के कोली राजा सुप्रबुद्ध एवं रामग्राम के कोलियों तक की तथा उसके बहुत बाद शाक्यों- कोलियों में से निकलकर पिप्पली वन में बसे मौर्या से लेकर मगध के अन्तिम मौर्य सम्राट् वृहद्रथ तक की सूर्यवंशी परम्परा बहुत स्पष्ट है।

 (डॉ. एस. बागची द्वारा सम्पादित बौद्ध-ग्रंथ ‘महावस्तु अवदान’ प्रथम खण्ड में यह तथ्य उद्घाटित किया गया है कि प्रारम्भ में लोगों द्वारा महसूस किया गया कि अनियंत्रित एवं अव्यवस्थित स्थिति में वे सुरक्षित नहीं हैं। अतः उन्होंने मिलकर समाज की सुरक्षा एवं सुव्यवस्थित संचालन के लिए एक योग्य तथा सशक्त व्यक्ति को शासक राजा के रूप में चुना। चूंकि वह सर्वसम्मति से चुना गया राजा था, अतः उसे महासम्मत के नाम से पुकारा गया। इस तरह राज्य-शासन की नींव पड़ी। महासम्मत सूर्य की तरह दैदिप्यमान् था इसलिए महासम्मत की सन्तति को उसकी उसी विशेषता का नाम मिला और वंश- परम्परा का प्रादुर्भाव हआ। वंश-परम्परा का सिलसिलेवार विवरण महावंश, महावस्तु अवदान, सुमंगल विलासिनी आदि बौद्ध ग्रंथों में दिया गया है महासम्मत के बाद उसका पुत्र कल्याण राज्य का शासक बना। उसके बाद रव और रव के बाद उपोषथ नाम का राजा हुआ। उपोषथ के बाद उसकी सन्तति-परम्परा में आगे चलकर राजा मान्धाता का उल्लेख मिलता है जो साकेत के राज्य-सिंहासन पर बैठा। इस मान्धाता के पश्चात् sujat नाम के ishwaku राजा का उल्लेख है। इस राजा की पट्टमहिषी रानी से पांच पुत्रों व पांच पुत्रियों की उत्पत्ति बताई गई है। पाँच पुत्रों के नाम हैं-ओपुर, निपुर, करकण्डक, उल्कामुख तथा हस्तिकशीर्ष। पाँचों राजकुमारियों के नामों का उल्लेख इस प्रकार हुआ है-शुद्धा, विमला, विजिता, जला व जली। अन्य ग्रंथों में सुजात नाम के इक्ष्वाकु राजा की जगह  OKAK का नाम आया है जिसकी पाँच रानियाँ यथा-भत्ता (भक्ता), चित्रा, जन्तु, जालिनी, विशाखा का उल्लेख हुआ है। ओक्काक को रानी भत्ता से उत्पन्न चार ही पुत्रों का उल्लेख है, यथा-ओक्कामुख, करकण्डक, हस्थिनिक और सीनिपुर। इनमें ओपुर का नाम नहीं है। शेष के नामों में भी उच्चारणगत अन्तर है, निपुर को सीनिपुर ही कह दिया गया है।

महावस्तु अवदान का विवरण आगे चलता है। महारानी की मृत्यु हो जाने के बाद महाराजा सुजात ने जेन्ती (जयन्ती) नाम की एक नवयुवती दासी से विवाह कर लिया। वह अत्यन्त सौन्दर्यशालिनी थी। विवाह के बाद राजा ने उससे प्रभावित होकर उसे पट्टमहिषी के पद से विभूषित कर दिया। इससे महाराजा को जेन्त (जयन्त) नाम का पुत्र पैदा हुआ। रानी जेन्ती ने ईर्ष्या-वश पूर्व महारानी भत्ता के पाँचों पुत्रों और पाँचों पुत्रियों को राज्य-सीमा से निष्कासित करने तथा अपने पुत्र जयन्त को सिंहासन का उत्तराधिकारी युवराज घोषित करने का वचन राजा से ले लिया। राजा को इस प्रकार वचनबद्ध होने की विवशता का अभिशाप झेलना पड़ा और उसने अपने दसों प्रिय राजकुमार- राजकुमारियों को पर्याप्त सुरक्षा तथा अन्य सामग्री एवं कुछ प्रजाजनों के साथ साकेत की राज्य-सीमा से बाहर भिजवा दिया। महाराजा सुजात के देहावसान के बाद घोषित युवराज जेन्त (जयन्त) साकेत के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुआ।

पुराण-ग्रंथों में अनुश्रुतियों के आधार पर वैवस्वत् मनु को प्रारम्भिक

शासक बताया गया है जबकि बौद्ध ग्रंथों में, प्रथम शासक के रूप में महासम्मत का उल्लेख हुआ है। महासम्मत के बाद क्रमशः कल्याण, रव, उपोषथ तथा मान्धाता के साथ-साथ और भी कुछ राजाओं के होने का उल्लेख है। हाँ, राजा मान्धाता का नाम दोनों परम्परा के ग्रंथों में समान रूप से आया है। पुराणों के अनुसार मान्धाता मनु के बाद उसकी उन्नीसवीं पीढ़ी में और इक्ष्वाकु के बाद अठारहवीं पीढ़ी में उत्पन्न हुआ बताया गया है। इसके विपरीत सुजात (जिसे महावस्तु अवदान में इक्ष्वाकु राजा कहा गया है) का उल्लेख मान्धाता के बाद हुआ है। वस्तुतः, मान्धाता को छोड़कर महासम्मत से चली पीढ़ियों में और मनु से निकली पीढ़ियों में आगे तक कोई साम्य, कोई मेल नहीं है।

साकेत (कोशल) राज्य की सीमा से निष्कासित दसों राजकुमार- राजकुमारियां हिमवन्त प्रदेश की ओर चले गए। उनकी मुलाकात वहां बोधिसत्व कपिल मुनि से हुई। कपिल मुनि ने उन्हें निकट के शाकोट वन-खण्ड में निवास करने तथा नगर बसाने की अनुमति दे दी। राजकुमारों ने वहाँ रहकर रक्तशुद्धि को बनाये रखने की गरज से अपनी ही बहनों से विवाह कर लिया ताकि उनमें किसी अन्य रक्त का मिश्रण न हो सके। यह समाचार जब महाराजा सुजात को मिला तो वे बड़े चिन्तित हो गये। उन्होंने अपने पुरोहितों, ब्राह्मणों, पंडितों को बुलवा कर उनसे इस प्रकार के विवाह की शक्यता (औचित्य) पूछी तो सबने एक स्वर से रक्त शुद्धता की दृष्टि से उसे शक्य (उचित) बताया-” शक्यमहाराजा कुमारा ततो निदानं दोषेण न लिप्यन्ति। राजा सुजातो ब्रह्मण-पण्डितानां श्रुत्वा इष्टो तुष्टो आत्तमना इमं उदानमुदानये। शक्या पुनर्भवन्तो कुमारा। तेषां दानि कुमाराणां शक्यं शाकिया तिसमाख्या समाज्ञा प्रज्ञप्ति उदपासि ।”*-किन्तु अम्बट्ठ सुत्त एवं सुमङ्गलविलासिनीआदि में कपिल मुनि के आश्रम के निकट जो वन-खण्ड था, उसमें शाक अर्थात् शाल के वृक्ष अधिक थे। शायद इसीलिये उसे शाकोट वन-खण्ड कहा गया है। इन्हीं शाक वृक्षों के कारण वहां बसने वाले राजकुमारों को शाक्य कहा गया। इस बात की पुष्टि महाकवि भिक्षु अश्वघोष द्वारा रचित सौन्दरनन्द की इन पंक्तियों से भी होती है-“शाल्य वृक्ष प्रतिच्छन्नं वासं यस्माच्च चाकिरे। तस्माविश्वाकु वंश्यास्ते भुवि शाक्या इति स्मृतः ।” यद्यपि शाकोट वन-खण्ड शाल वृक्षों का वन था इसलिए उसमें वास करने वाले ये राजकुमार शाक्य कहलाये तथापि उनके अपनी बहनों से विवाह कर लेने के तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता और न ही इससे उन पर कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। महावस्तु अवदान में ओपुर के बाद उत्तराधिकारी के क्रम में कपिलवस्तु में हुए शासक-राजाओं के नामों का उल्लेख इस प्रकार आया है-निपुर, निपुर के बाद करकण्डक या करकण्ड, करकण्डक के बाद उल्कामुख, उल्कामुख के बाद हस्तिकशीर्ष और हस्तिकशीर्ष के पश्चात् उसका पुत्र सिंहहनु-” ओपुरस्य राज्ञो पुत्रो निपुरो, निपुरस्य राज्ञो पुत्रो करकण्डको, करकण्डकस्य राज्ञो पुत्रो उल्कामुखो, उल्काममुखस्य पुत्रो हस्तिकशीर्षो, हस्तिकशीर्षस्य पुत्रो सिंहहनु।'” इसके बाद सिंहहनु के चार पुत्र, यथा-शुद्धोदन, धौतोदन, शुक्लोदन एवं अमितोदन और एक अमिता नाम की पुत्री होने का उल्लेख महावस्तु अवदान में मिलता है- “सिंहहनुस्य राज्ञो चत्वारि पुत्राः शुद्धोदनो धोतोदनो शुक्लोदनो अमितोदनो अमिता च नाम दारिका ।” यहाँ हस्तिकशीर्ष और सिंहहनु के बीच राजा जयसेन का नाम लुप्त हो गया प्रतीत होता है। वस्तुतः हस्तिकशीर्ष के बाद जो सन्तति- प्रवाह पीढ़ियों को पार करते हुए आगे चला वह हजारों साल के दीर्घकाल तक चला। इस हजारों साल के दीर्घकाल में अनेकों राजा हुए होंगे जिनका तारतम्य टूटा हुआ है। हजारों साल से चले आ रहे इस सन्तति-प्रवाह का जो सूत्र पकड़ में आता है वह महाराजा जयसेन के होने का है। बौद्ध ग्रंथ महावंश में कपिलवस्तु के राजा जयसेन से पूर्व के राजाओं के नामों का विवरण अधिक विस्तार से आया है। इसके अनुसार इस कल्प (भद्र कल्प) में महासम्मत के बाद क्रमशः रोज, वररोज, कल्याणक (प्रथम व द्वितीय) उपोषथ, मान्धाता, चर (क), उपचर, चेतिय, मुचल, महामुचल, मुचलिन्द, सागर, सागरदेव, भरत, अंगीरस, रुचि, सुरूचि, प्रताप, महाप्रताप, प्रणाम (प्रथम, द्वितीय), सुदर्शन (प्रथम, द्वितीय), नेरू (प्रथम, द्वितीय), अर्चिष्मान् तथा उसके पुत्र-पौत्र हुए। इन 28 पीढ़ियों के राजाओं ने कुशावती (वर्त्तमान् कसया पूर्वी उत्तर प्रदेश), राजगृह (वर्तमान राजगिरि, बिहार), मिथिला (वर्त्तमान् जनकपुरी, नेपाल) नामक नगरियों को अपनी राजधानी बनाकर राज्य किया। अब हम उदाहरण के तौर पर देखेंगे कि सूर्यवंश की इस विशुद्ध परम्परा को पुराणों में किस तरह तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया है। हम इस सम्बन्ध में विष्णु पुराण में वर्णित इक्ष्वाकु वंश को लेते हैं।

पुराणों का इक्ष्वाकु वंश :

विष्णु पुराण के अनुसार ब्रह्माजी के दायें अंगूठे से दक्ष प्रजापति पैदा हुए; दक्ष से अदिति और अदिति से विवस्वान् और उससे मनु का जन्म हुआ। मनु के इक्ष्वाकु, नृग, धृष्ट, शर्याति, नरिष्यत्र, प्रांशु, नाभाठा, दिष्ट, करुष और प्रषध नाम के दस पुत्र हुए। मनु को ‘इला’ नाम की एक कन्या भी उत्पन्न हुई।’ यहाँ हम पहले इला प्रसंग को ले लेते हैं।

मनु-पुत्री इला की कहानी:- मित्रावरुण की कृपा से इला कन्या से सुद्युम्न नाम के पुरुष में बदल गई, उसका लिंग परिवर्तन हो गया। पर महादेव के कोप से वह फिर स्त्री हो गई और चन्द्रमा के पुत्र बुध के आश्रम के निकट घूमने लगी। बुध ने उसे इस तरह घूमते देखा, तो वह उस पर आसक्त हो गया और उसने उसके साथ सहवास कर पुरुरवा नाम के पुत्र को जन्म दिया। पर फिर चमत्कार हो गया। पुरुरवा को अपनी कोख से जन्म देकर इला ऋषिगण की कृपा से पुनः सुद्युम्न पुरुष के रूप में परिवर्तित हो गई और इस तरह पुरुष में परिवर्तित होकर उसने उत्कल, गय और विनत नाम के तीन पुत्रों को पैदा किया। इला से ऐल या चन्द्रवंश निकलने की बात अन्य पुराणों में भी आई है। की बात। अब लें मनु के ज्येष्ठ पुत्र इक्ष्वाकु से निकली पौराणिक वंश-परम्परा

पौराणिक इक्ष्वाकु का जन्म और उसका सन्तति-क्रम : छींकने के समय मनु की घ्राणेन्द्रिय से इक्ष्वाकु का जन्म हुआ-‘क्षतवतश्च मनोरिक्ष्वाकु

पुत्रो जज्ञे घ्राणतः।” इक्ष्वाकु के सौ पुत्र पैदा हुए जिनमें केवल विकुक्षि, निमि तथा दण्डनायक ये तीन ही प्रमुख हुए, बाकी सब गौण। बड़े पुत्र विकुक्षि को इक्ष्वाकु ने श्राद्ध के लिए मांस लेने भेजा। उसने जंगल में जाकर शशक (खरगोश) मारा। किन्तु खुद भूखा होने से उसने रास्ते में ही उस शशक का आधा मांस दांतों से तोड़ कर खा लिया और बचा मांस अपने पिता इक्ष्वाकु को लाकर दे दिया। मांस अपवित्र हो जाने से पुरोहित वशिष्ठ ने उससे श्राद्ध नहीं किया। इस पर इक्ष्वाकु ने क्रोधित होकर विकुक्षि को त्याग दिया। चूंकि विकुक्षि ने शशक का मांस खा लिया था, अतः उसका नाम शशाक पड़ गया। शशाक राजर्षि हो गया और उसने पुरञ्जय नामक पुत्र को पैदा किया। इस पुरञ्जय को ककुस्त्थ भी कहा गया जिससे अनेना नाम का पुत्र हुआ। अनेना से पृथु, पृथु से विष्टराश्व, विष्टराश्व से चान्द्रयुवनाश्व, चान्द्रयुवनाश्व से आठवीं पीढ़ी का शावस्त नामक पुत्र हुआ जिसने शावस्ती (श्रावस्ती) नगरी बसाई। राजा शावस्त के बाद उत्तरोत्तर क्रमशः सात राजा हुए जिनके नाम के आगे अश्व शब्द लगता रहा। इन सात राजाओं के बाद प्रसेनजित नाम का राजा हुआ जिससे युवनाश्व का जन्म हुआ।

भविष्य में होने वाली पीढ़ियों की उ‌द्घोषणा का प्रश्न :-

युवनाश्व ने बिना जाने मंत्रित जल पी लिया जिससे उसकी रानी के बजाय उसे ही गर्भ रह गया और मान्धाता उत्पन्न हुए। इसके बाद भविष्य में होने वाले राजाओं का वर्णन है। और भविष्य में होने वाले राजा वृहद्बल के बाद एक-एक पीढ़ी के राजाओं के नाम क्रमशः गिनाते हुए उसकी इक्कीसवीं पीढ़ी में होने वाले सञ्जय नाम के राजा का नाम उद्घाटित किया गया है। फिर आगे कहा गया है कि सञ्जय का पुत्र शाक्य, शाक्य का पुत्र शुद्धोदन, शुद्धोदन का पुत्र राहुल, राहुल का पुत्र प्रसेनजित, प्रसेनजित का पुत्र क्षुद्रक, क्षुद्रक का कुण्डक, कुण्डक का सुरथ और सुरथ का पुत्र सुमित्र होगा। ये सब इक्ष्वाकु के वंश में बृहद्बल की

सन्तान होंगे। इसके बाद पुराणकर्त्ता कहता है-

‘इक्ष्वाकूणामयं वंशस्सुमित्रान्तो भविष्यति।

यतस्तं प्राप्य राजानं सस्थां प्राप्स्यतिर्वै कलौ ।।’ (विष्णु पुराण 4.22.13)

– अर्थात् इक्ष्वाकु वंश राजा सुमित्र तक रहेगा क्योंकि कलियुग में राजा सुमित्र के होने पर फिर यह समाप्त हो जायेगा।*

यहाँ प्रश्न उठता है कि जिससे शाक्य वंश का प्रादुर्भाव हुआ, वह महावस्तु अवदान का सुजात नाम का इक्ष्वाकु राजा ही क्या अन्य ग्रंथों में आया ओकाक है? इस सम्बन्ध में ‘ओकाक’ और ‘इक्ष्वाकु’ शब्दों को लेकर एक दिलचस्प विवरण ‘The Romantic Legend of Shakya Buddha जो महाभिनिष्क्रमण सुत्त के चीनी अनुवाद का अंग्रेजी रूपांतरण है, में आया है। इसके अनुसार मखदेव अपने राजवंश की परम्परा में अन्तिम राजा था। मखदेव का जो वारिस पुत्र हुआ वह ओकक के नाम से पुकारा गया। ओकक का पुत्र महाकुश हुआ। वह निःसन्तान था। अतः उसे अपनी वंश-परम्परा के आगे न चलने का दुःख था। उसने निराश होकर राज्य-सिंहासन त्याग दिया और वह संन्यासी होकर जंगल में चला गया। वहां उस संन्यासी राजऋषि महाकुश के साथ प्रजा के कुछ लोग भी वन में चले गये और उसके शिष्य हो गये। उन्होंने उसके लिए एक वृक्ष पर रहने के लिए झोपड़ीनुमा मंच बना दिया ताकि उस पर वन्य पशुओं का आक्रमण न हो सके। शिष्य प्रतिदिन भिक्षाटन के लिए चले जाते थे, वे अपने आचार्य राजऋषि को भी भोजन माँग लाते थे। एक दिन शिष्यों की अनुपस्थिति में दिन में वहां कोई आखेटक आ गया और उसने वृक्ष पर बैठे राजत्रऋषि को बड़ा पक्षी मानकर उस पर बाण चला दिया जिससे उसकी मृत्यु हो गई। आखेटक को पता चला, तो वह उसे वहाँ छोड़कर चला गया।

भिक्षाटन से भोजन जुटाकर जब शिष्य लौटे, तो उन्हें राजऋषि के शव को देखकर बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने अपने हाथों से उसका दाह संस्कार कर दिया। किन्तु उन्होंने देखा वृक्ष के नीचे रक्त को दो बूंदें धरती पर पड़ी थीं जो राजऋषि को बाण लगने के कारण उसके शरीर से निकली थीं। कुछ समय बाद घरतीपर गिरी रक्त की वे बूंदें ईक्ष (इंख-गत्रा) के रूप में उग गई और जब ईक्ष का पौधा बड़ा हुआ तो वह दो फाड़ (शाखाओं) में बैट गया तथा सूर्य की गर्मी से पक कर पूरी तरह पक गया। उसकी दो फाड़ों में से एक से लड़‌का तथा दूसरी से लड़‌को निकली जिन्हें देखकर राजत्रऋषि महाकुश के शिष्यों ने उन्हें इस तरह से उत्पन उसकी सन्तत्रान समझा और लड़‌के को ले जाकर राजसिंहासन पर बिठा दिया। ज्योत्सियों ने उसका नाम सुजात रखा और चूंकि वह ईक्ष से निकला था उसे इक्ष्वाकु विरुद्धक भी कहा। सूर्य केतेज से ईक्ष पकी थी, इसलिए उसे सूर्यवंश भी कहा गया।** लड़‌को का नाम सुभद्रा रखा जो उसकी प्रथम पत्नी बनी।

चीनी भाषा के इस अनुवाद तथा उसके अंग्रेजी रूपान्तरण से इतना तो स्पष्ट है कि ओकाक (ओकाक) और इक्ष्वाकु एक ही व्यक्ति नहीं हैं, वे पितामह-पौत्र हैं और उनके अर्थ में भी अन्तर है। फिर पौराणिक इक्ष्वाकु को तो मनु की छींक के कारण उसकी नाक से निकला हुआ बताया गया है। अतः मनु वाला इक्ष्वाकु मनु के रक्त से पैदा नहीं हुआ जबकि इस चोनी बौद्ध ग्रंथ में उसे ईक्ष के माध्यम से महाकुश के विशुद्ध रक्त से उत्पन्न बताया है। वस्तुतः वंश तो रक्त से ही चलता है न। अतः निर्णयात्मक रूप से यह स्पष्ट है कि दोनों ओकाक और इक्ष्वाकु में मूलतः अन्तर हैं और दोनों एक नहीं हैं।

राजा सुजात को ही यदि इक्ष्वाकु कहा जाता है तो महासम्मतीय वंश- परम्परा में हुए बौद्ध ग्रंथों के सुजात इक्ष्वाकु और मनु से उत्पन्न हुए ब्राह्मण- पुराण वाले इक्ष्वाकु अलग-अलग हैं, उनमें किसी तरह का कोई साम्य नहीं है। लगता है इस इक्ष्वाकु नाम को चतुराई से लेकर ब्राह्मणिकों-पौराणिकों ने उसे मनु से जोड़ दिया और अपने मुताबिक वंशावलियों की कल्पनात्मक कथाएं गढ़ लीं। आखिर बुद्ध के महात्म्य को ही उन्होंने समाप्त करने की कोशिश की, तो उनकी इससे पूर्व की वंश परमपरा को धूमिल बना देने का काम वे क्यों नहीं करते 2

(इस पूरे प्रकरण को लेकर हमारी विशेष टिप्पणी इस प्रकार है :-

(1) बौद्ध ग्रंथ महावस्तु अवदान में उल्लिखित ‘सुजात नाम इक्ष्वाकु राजा’ तथा पुराणों में वर्णित इक्ष्वाकु में मूलतः पर्याप्त अन्तर है, यथा-महावस्तु अवदान का इक्ष्वाकु राजा सुजात महासम्मत की सन्तति-क्रम में उनके आगे की पीढ़ियों में है जबकि पुराणों में इक्ष्वाकु की उत्पत्ति वैवस्वत् मनु के पुत्र के रूप में बताई गई है और वह भी काल्पनिक रूप में मनु की छींक से उत्पन्न, जिसको सुजात भी नहीं कहा गया है। बौद्ध ग्रंथों में आई सूर्यवंश की पीढ़ियों में और पौराणिक ग्रंथों में आई सूर्यवंश की पीढ़ियों में कोई मेल नहीं है, उनमें

मान्धाता के नाम को छोड़कर अन्तर-ही-अन्तर है। (2) बौद्ध ग्रंथों में हजारों वर्षों के अंधकारयुगीन इतिहास में विलुप्त

सूर्यवंशी राजाओं में से कुछेक राजाओं के उपलब्ध नामों का ही उल्लेख हुआ है। इसके विपरीत पुराणों में मनु के पुत्र इक्ष्वाकु सहित उसकी बाद की सभी पीढ़ियों की सिलसिलेवार सूची तैयार की गई है और इसमें भी अलग-अलग पुराण में राजाओं के नाम तथा क्रम-भेद से अलग-अलग सूचियां हैं। उनमें आये कुछ राजाओं के नामों के साथ चमत्कारिक, अवैज्ञानिक, अप्राकृतिक घटना-कथाएं जोड़ दी गई हैं, इससे ये सूचियां अविश्वसनीय लगती हैं। परन्तु कुछ हिन्दू इतिहासकारों ने इन सभी काल्पनिक एवं तथाकथित अनुश्रुतियों के आधार पर लिखे गये पुराणों को मिलाकर सूर्यवंशी राजाओं (Solar Kings) की एक सूची तैयार कर ली है। (देखिये परिशिष्ट 4)

لحرة (3) शाक्यों के गणाधिपति महाराज अधिराज का उल्लेख भी मिलता है जो लगता है महाराजा जयसेन से कुछ पहले हुए थे। वे अपने कुछ साथी तथा कुछ सेना को लेकर अन्य प्रदेश में बसने के लिए निकल पड़े थे और हिमालय की तराई तथा कामरूप (आसाम) को पार करते हुए शिलावती एवं ऐरावती नदियों के दोआबी समतल मैदान में जा पहुंचे थे। ‘बरमा के इतिहास के मुताबिक उन्होंने वहाँ सिंहरथ डगों नामक राज्य की स्थापना की। शाक्य अधिराज से ही बरमा में राज-वंश का सूत्रपात हुआ।’ (आचार्य श्री सत्यनारायण गोयन्का-कृत शाक्यों और कोलियों के गणतन्त्र का विनाश क्यों हुआ?

पुस्तिका, पृष्ठ 15)

पते की बात :-इक्ष्वाकु की वंशावली को लेकर पुराणों में, विशेषकर विष्णु पुराण में, तथ्यों के विपरीत जो विवरण प्रस्तुत किया गया है, वह सवालों से रिक्त नहीं है, सत्य-शोधकों को निराश करने वाला है। इस सम्बन्ध में पहली बात तो हम यहां यह कहना चाहेंगे कि पुराण-ग्रंथ सिद्धार्थ गौतम के बहुत बाद में लिखे गये हैं। इनके लिखे जाने का स्वर्णिम काल तो गुप्त शासन काल है। हां, कल्कि जैसे कुछ पुराण तो और भी बहुत बाद में लिखे गये हैं। इनके लिखने का प्रयोजन पुराने वैदिक कर्मकाण्डों तथा मान्यताओं, जो बुद्ध-वाणी के सामने गतिरोधित एवं क्षीण प्रायः हो गये थे, को चमत्कारिक व काल्पनिक कथा-कहानियों, वृत्तांतों के माध्यम से जन-ग्राह्य बनाकर पुनर्जीवित करना था। अतः पुराणों का ध्येय पुरानी वैदिक मान्यता की प्रस्थापना अधिक है, इतिहास कम है।

दूसरी बात यह है कि घने अंधकार की पर्तों में खोये प्राक् इतिहास’ की हजारों वर्षों की घटनाओं तथा इक्ष्वाकु वंशीय सन्तति-परम्परा के राजाओं के नामों को मालूम कर उन्हें इस तरह काल क्रमानुसार बिना किन्हीं पुरा प्रमाणों एवं शिलालेखों के रखना असंभव है। हाँ, कहीं-कहीं किन्हीं कारणों से उनके टूटे हुए तार अवश्य पकड़ में आ सकते हैं, परन्तु वे भी बड़ी कठिनाई से। पर कोरी कल्पना के सामने न कुछ असंभव है और न कठिन। असल में कल्पना कल्पना है, इतिहास नहीं। इसके अतिरिक्त इक्ष्वाकु वंश के बृहद्बल से लेकर सुमित्र तक की भूतकालीन वंश-परम्परा को भविष्य में होने वाले राजाओं की परम्परा बताने की बात तो और भी सफेद झूठ है, अविश्वसनीय, प्रवञ्चनापूर्ण।

इन सबसे अधिक आपत्ति की बात तो यह है कि शुद्धोदन को शाक्य का और राहुल को शुद्धोदन का पुत्र बता दिया गया। शुद्धोदन तथा राहुल के बीच के ऐतिहासिक पुरुष सिद्धार्थ गौतम बुद्ध तथा कपिलवस्तु के नाम को ही पुराणकार ने गायब कर दिया। इसके पीछे उसको क्या मानसिकता थी-कौन बतावे? वस्तुतः यह सब जानते हैं कि शुद्धोदन सिद्धार्थ के पिता थे और राहुल सिद्धार्थ का पुत्र। यह ऐतिहासिक विसंगति की कहानी आगे भी चली। पुराणकर्ता ने कौशल-नरेश प्रसेनजित को राहुल का पुत्र होना लिख दिया जबकि राहुल को तो उसकी बाल्यावस्था में ही प्रव्रजित कर भिक्षु संघ में शामिल कर लिया गया था। वस्तुतः प्रसेनजित तो बुद्ध का अंजलिबद्ध उपासक था।

यहाँ यह बात ध्यातव्य है कि कपिलवस्तु के सूर्यवंशी शाक्यों की साकेत के सूर्यवंशी राजाओं से भिन्न सन्तति थी। श्रावस्ती कब कौशल-राज्य की राजधानी बन गया, हमें नहीं पता। पर प्रामाणिक बौद्ध स्रोतों से इतना अवश्य पता चलता है कि साकेत में ओक्काक के बाद जो राजा बना वह किसी क्षत्रिय रानी से उत्पन्न न होकर दासी से महारानी बनी जेन्ती (जयन्ति) का पुत्र जेन्त (जयन्त) था। इसीलिए शायद कपिलवस्तु के शाक्य उसे तथा उससे निकली पीढ़ी- परम्परा को विशुद्ध क्षत्रियों की श्रेणी का नहीं मानते थे। फिर ऐसा भी हो सकता है कि पुराणकारों ने महासम्मत की सन्तति-परम्परा के सुजात नाम इक्ष्वाकु राजा के समानान्तर बाह्मणिक वैवस्वत मनु से उत्पन्न इक्ष्वाकु को खड़ा कर दिया और अपने मनचाहे ढंग से उसकी वंशावली (भूत की और भविष्य की) तैयार कर दी जिसमें उसकी वास्तविक राज-पीढ़ियों को तथा शाक्यों और उनसे सम्बन्धित कोलियों की वंशावली को देखा ही नहीं गया।

अन्तिम निष्कर्ष : यद्यपि पुराणों में विस्तृत रूप से वंशावलियों का तथा अन्य बातों का वर्णन किया गया है तथापि उनमें ब्रह्मा के अंगूठे से प्रजापति व छींक के कारण मनु की नाक से इक्ष्वाकु की उत्पत्ति, इला का पुरुष में बदलना और उससे पुत्र पैदा होना और फिर स्त्री में परिणित हो जाना, अभिमंत्रित जल पीने से रानी के बजाय राजा को गर्भ रह जाना और पुत्र पैदा हो जाना, कल्पना की अतिरञ्जना ही है; नैसर्गिक तथ्यात्मकता नहीं; और कहीं-कहीं भूले-भटके कोई- कोई तथ्यात्मक बात मिल भी जाती है तो वह विसंगतता तथा असंगतता के दोष से ग्रसित है। इसके विपरीत बौद्ध ग्रंथों में प्राक् इतिहास के अंधकार की पतों में जहां से जो कुछ तथ्य मिले, उन्हें उसी रूप में ज्यों-के-त्यों रख दिया गया। इसलिए बौद्ध ग्रंथों में आये ऐतिहासिक विवरणों में अधिक विश्वसनीयता है, तथ्यात्मकता है और वे पुरातत्त्वी यथार्थ प्रमाणों से परिपुष्ट भी हैं।

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